मिर्जा गालिब: गहन मानवीय चेतना के चितेरे

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मिर्जा ग़ालिब उर्दू-फ़ारसी के प्रख्यात कवि तथा महान् शायर थे। वे सर्व-धर्म-सद्भाव एवं मानवीय चेतना के चितेरे थे। ग़ालिब का व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक एवं बहुआयामी था। उनका जीवन संघर्ष से भागते या पलायन करते हुए नहीं बिता और न इनकी कविता एवं शायरी में कहीं निराशा का नाम है। वह इस संघर्ष को जीवन का एक अंश तथा आवश्यक अंग समझते थे। मानव की उच्चता तथा मनुष्यत्व को सब कुछ मानकर उसके भावों तथा विचारों का वर्णन करने में वह अत्यन्त निपुण थे और यह वर्णनशैली ऐसे नए ढंग की है कि इसे पढ़कर शताब्दियों बाद भी पाठक मुग्ध हो जाता है। ग़ालिब में जिस प्रकार शारीरिक सौंदर्य था, उसी प्रकार उनकी प्रकृति में विनोदप्रियता तथा वक्रता भी थी और ये सब विशेषताएं उनकी कविता एवं शायरी में यत्र-तत्र झलकती रहती हैं। चिन्ताओं से संघर्ष में इनकी सहायक एक तो थी शराब, जिन्दगी के अंतिम समय में जुए की लत भी लग गई। उन्हें शुरू से शतरंज और चौसर खेलने की आदत थी। अक्सर मित्र-मण्डली जमा होती और खेल-तमाशों में वक्त कटता था। अपने मदिरा प्रेम के कारण जो भाव प्रकट किए हैं, वे शेर ऐसे चुटीले तथा विनोदपूर्ण हैं कि उनका जोड़ उर्दू कविता में अन्यत्र नहीं मिलता।
हर जुबां का वो आसरा…उसके दिल में धड़कता था आगरा… गालिब को पूरी दुनिया जानती है, उनकी शायरी का सम्मान करती है। उनकी शायरी के लोग आज भी दीवाने हैं कोई भी महफिल गालिब की शायरी के अधूरी है। उनका जन्म आगरा में 27 दिसंबर 1797 को एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था। उनका पूरा बचपन ताजनगरी में ही बीता। मिर्जा गालिब का पूरा नाम मिर्जा असद-उल्लाह बेग खां उर्फ “गालिब” था। उन्होंने अपने पिता और चाचा को बचपन में ही खो दिया था, गालिब का जीवनयापन मूलतः अपने चाचा के मरणोपरांत मिलने वाले पेंशन से होता था। गालिब की पृष्ठभूमि एक तुर्क परिवार से थी और इनके दादा मिर्जा कोबान बेग खान मध्य एशिया के समरकन्द से सन् 1750 के आसपास अहमद शाह के शासन काल में भारत आये। उन्हांेने दिल्ली, लाहौर व जयपुर में काम किया और अन्ततः आगरा में बस गये। गालिब के पिता मिर्जा अब्दुल्ला बेग  ने इज्जत-उत-निसा बेगम से निकाह किया और अपने ससुर के घर में रहने लगे। उन्होने पहले लखनऊ के नवाब और बाद में हैदराबाद के निजाम के यहाँ काम किया। 1802 में अलवर में एक युद्ध में उनकी मृत्यु के समय गालिब मात्र 5 वर्ष के थे। जब गालिब छोटे थे तो एक नव-मुस्लिम-वर्तित ईरान से दिल्ली आए थे और उनके सान्निध्य में रहकर गालिब ने फारसी सीखी। जवानी के दहलीज पर कदम रखते ही वह दिल्ली चले गए। यहां जाने के बाद भी ताउम्र मिर्जा गालिब के दिल व दिमाग में आगरा छाया रहा। आगरा में गालिब के जन्मस्थान को “इन्द्रभान कन्या अन्तर महाविद्यालय” में बदल दिया गया है, जिस कमरे में गालिब का जन्म हुआ था उसे आज भी सुरक्षित रखा गया है। दिल्ली के चांदनी चौक के बल्लीमारान इलाके के कासिम जान गली में स्थित गालिब के घर को “गालिब मेमोरियल” में तब्दील कर दिया गया।
गालिब की प्रारम्भिक शिक्षा के बारे में स्पष्टतः कुछ कहा नहीं जा सकता। उन्होंने अधिकतर फारसी और उर्दू में पारम्परिक भक्ति और सौन्दर्य रस पर रचनायें लिखी। उन्होंने फारसी और उर्दू दोनो में पारंपरिक गीत काव्य की रहस्यमय-रोमांटिक शैली में सबसे व्यापक रूप से लिखा और यह गजल के रूप में जाना जाता है। उनकी शायरियों में गहन साहित्य और क्लिष्ट भाषा का समावेश था। उन्होंने अपनी शायरी का बड़ा हिस्सा असद के नाम से लिखा है। गालिब हिंदुस्तान में उर्दू अदबी के दुनिया के सबसे रोचक किरदार थे। उनकी जड़ें तुर्क से थीं। वे फारसी कविता को भारतीय भाषा में लोकप्रिय करने में माहिर थे, उन्हें पत्र लिखने का बहुत शौक था। इसीलिए उन्हें पत्र-पुरोधा भी कहा जाता था। आज भी उनके पत्रों को उर्दू साहित्य मंे एक अहम विरासत माना जाता है। मिर्जा गालिब ने 11 वर्ष की छोटी उम्र में ही अपनी पहली कविता लिखी थी। मिर्जा गालिब की मातृभाषा उर्दू थी लेकिन तुर्की और फारसी भाषाओं पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी। उन्होंने अरबी, फारसी, दर्शन और तर्कशक्ति का भी अध्ययन किया था।
बहादुर शाह जफर द्वितीय ने 1850 ई. में गालिब को “दबीर-उल-मुल्क” और “नज्म-उद-दौला” की उपाधि प्रदान की थी। इसके अलावा बहादुर शाह जफर द्वितीय ने गालिब को “मिर्जा नोशा” की उपाधि प्रदान की थी, जिसके बाद गालिब के नाम के साथ “मिर्जा” शब्द जुड़ गया। तबियत से खुद एक शायर बहादुर शाह जफर द्वितीय ने कविता सीखने के उद्देश्य से 1854 में गालिब को अपना शिक्षक नियुक्त किया था। बाद में बहादुर शाह जफर ने गालिब को अपने बड़े बेटे “शहजादा फखरूदीन मिर्जा” का भी शिक्षक नियुक्त किया था। इसके अलावा गालिब मुगल दरबार में शाही इतिहासविद के रूप में भी काम करते थे।
मिर्ज़ा के विषय में पहली बात तो यह है कि वह अत्यन्त शिष्ट एवं मित्रप्रेमी थे। जो कोई उनसे मिलने आता, उससे खुले दिल से मिलते थे। इसीलिए जो आदमी एक बार इनसे मिलता था, उसे सदा इनसे मिलने की इच्छा बनी रहती थी। मित्रों के प्रति अत्यन्त वफ़ादार थे। उनकी खुशी में खुशी, उनके दुःख में दुःखी। मित्रों को देखकर बाग़-बाग़ हो जाते थे। उनके मित्रों का बहुत बड़ा दायरा था। उसमें हर जाति, धर्म और प्रान्त के लोग थे। वैसे वे शिया मुसलमान थे, पर मज़हब की भावनाओं में बहुत उदार और स्वतंत्र चेता थे। ग़ालिब सदा किराये के मकानों में रहे, अपना मकान न बनवा सके। ऐसा मकान ज्यादा पसंद करते थे, जिसमें बैठकख़ाना जरूर हो और उनके दरवाज़े भी अलग हों, जिससे यार-दोस्त बेझिझक आ-जा सकें। खाने-खिलाने के शौक़ीन, स्वादिष्ट व्यंजनों के प्रेमी थे। उन्हें हम स्नेह एवं मित्रता की छांह देने वाले बरगद कहे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
साल 1847 में जुआ खेलने के जुर्म में गालिब को जेल भी जाना पड़ा था और उन्हें 200 रूपए जुर्माना और सश्रम कारावास की सजा दी गई थी। एक मुसलमान होने के बावजूद गालिब ने कभी रोजा नहीं रखा। एक जानकारी के मुताबिक ये किस्सा गदर के दिनों का है। उस वक्त जब दिल्ली से मुसलमान बाहर की तरफ जा रहे थे, लेकिन मिर्जा गालिब वहीं रहे। इन्हीं दिनों उनका सामना एक अंग्रेज कर्नल से हो गया। अंग्रेज कर्नल ने मिर्जा गालिब के कपड़े देखकर उनसे सवाल किया, क्या आप मुसलमान हैं? ये सवाल सुनकर मिर्जा गालिब ने ऐसा जवाब दिया कि अंग्रेज कर्नल हैरान और हक्का बक्का रह गया। उन्होंने अंग्रेज कर्नल को तुरंत जवाब देते हुए कहा कि मैं आधा मुसलमान हूं। ये जवाब सुनकर अंग्रेज कर्नल ने अगला सवाल दागा और पूछा कि ऐसा कैसे कि आप आधे मुसलमान हैं? इसके जवाब में मिर्जा गालिब ने कहा, हां, क्योंकि मैं शराब तो पीता हूं लेकिन सुअर नहीं खाता। मिर्जा गालिब का यह जवाब सुनकर अंग्रेज कर्नल अपनी हंसी नहीं रोक पाया।
मिर्जा गालिब का एक बहुत मशहूर शेर है ‘ये इश्क नहीं आसान, बस इतना समझ लीजिये, इक आग का दरिया है और डूबकर जाना है।’ न जाने गालिब ने किन परिस्थितियों में ये शेर गढ़ा होगा। लेकिन ऐसा लगता है कि इश्क पर जो पहरा उस सदी में था वह आज इक्कीसवीं सदी के ग्लोबल इंडिया में भी है। जिंदगी जीने के तमाम तरीके भले ही बदल गए हों, लेकिन प्यार मोहब्बत को देखने का हमारा पारिवारिक-सामाजिक-धार्मिक नजरिया आज भी सदियों पुराना है। मिर्जा गालिब ने बेहतरीन शेर लिखे हैं- इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ खुदा, लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं। दरअसल मिर्जा गालिब अपनी हाजिर जवाबी के लिए मशहूर थे। इस दौरान भी इश्क ने ‘गालिब’ निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के। मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यूं रात भर नहीं आती…। गालिब की जिंदगी संघर्षों से भरी रही, उन्होंने अपनी जिंदगी में अपने कई अजीजों को खोया। अपनी जिंदगी गरीबी में गुजारी। इसके बावजूद गालिब के शेर ने लोगों के दिलों को छुआ। गालिब 15 फरवरी 1869 को इस दुनिया से अलविदा कह गए।

(ललित गर्ग)
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